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इस आसन का नाम योगी मत्स्येन्द्रनाथ के नाम पर रखा गया है। यह नाम संस्कृत के शब्द 'अर्ध' से लिया गया है, जिसका अर्थ है आधा, 'मत्स्य', जिसका अर्थ है मछली, 'इंद्र', के लिए है। इस आसन को वक्रसन भी कहा जाता है। 'वक्रा' का अर्थ है संस्कृत में मुड़ा हुआ।

अर्धमत्स्येंद्रासन योग - Ardha Matsyendrasana
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अर्धमत्स्येंद्रासन की विधि

बैठे हुए, दायीं ओर के घुटने को मोड़ते हुए एड़ी को नितंब के साथ लगा दें। बायां पांव दायें घुटने के ऊपर से ले जाते हुए भूमि पर रखें, पांव का पूरा पंजा घुटने से आगे न जाये और बायां घुटना छाती के मध्य में रहे। दायें हाथ को बायें घुटने के ऊपर से ले जाते हुए बायें पैर के तलवे को अंगूठे की ओर से पकड़ लें। बायां हाथ पीठ के पीछे रखें। पीठ को सीधा रखते हुए गर्दन को घुमाकर श्वास भरते हुए ठोढ़ी को बायें कंधे की ओर ले जाएं। मेरुदंड को अपने अवलंब पर पूरा मोड़ दें ताकि दोनों कंधे एक रेखा में हो जाएं। जितना अधिक आप मोड़ देंगे, उतना ही अधिक लाभ होगा। मोड़ देने से घुटना और दबेगा जिससे बायीं ओर के आमाशय, क्लोम ग्रंथि, बड़ी आंत और प्लीहा प्रभावित होंगे और दायीं ओर दबाव पड़ने से यकृत और बड़ी आंत प्रभावित होगी। दोनों गुर्दे व छोटी आंतें भी बलवती लें।नये साधक शुरू-शुरू में अपने पांव को पूरा भूमि पर रखते हुए घुटने से थोड़ा आगे भी ले जायें तो भी कोई बुराई नहीं है, परंतु घुटना सीधारहे ताकि साधक अपनी बाजू को घुटने के ऊपर से ले जाकर पांव को या टखने को पकड़ सके या कोहनी से घुटने को दबाकर अधिक मोड़ दे सके। उसकी जंघा पाचन संस्थान के दायें तथा बायें भाग को अधिक-सेअधिक दबाये, इस बात का भी ध्यान रखें।

अर्धमत्स्येन्द्रासन के लाभ

इस आसन में मेरुदंड को उसकी धुरी के ऊपर ही दायें और बायें मोड़ते हैं। स्नायुमंडल अधिकाधिक प्रभावित होता है, मूत्रदाह व मधुमेह रोग में अर्द्धमत्स्येंद्रासन विशेष लाभ देता है। हर प्रकार का कमर दर्द दूर होता है। पाचन यंत्र, विशेषकर, क्लोम (पैंक्रियास) और यकृत पुष्ट होते हैं। फेफड़ों और हृदय को बल मिलता है।