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हमारे ऋषि-मुनियों ने योग के द्वारा शरीर, मन और प्राण की शुद्धि तथा परमात्मा की प्राप्ति के लिए आठ प्रकार के साधन बताये हैं, जिसे अष्टांग योग कहते हैं। योग के ये आठ अंग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि। इनमें पहले पांच साधनों का संबंध मुख्य रूप से स्थूल शरीर से है। ये सूक्ष्म से स्पर्श मात्र करते हैं, जबकि बाद के तीनों साधन सूक्ष्म और कारण शरीर का गहरे तक स्पर्श करते हुए उसमें परिष्कार करते हैं। इसीलिए पहले साधनों - यम, नियम, आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार को बहिरंग साधन और धारणा, ध्यान तथा समाधि को अंतरंग साधन कहा गया है। अब हम यहां इन्हीं की एक-एक करके चर्चा करेंगे, कुछ की सामान्य और कुछ की विशेष रूप में।

अष्टांग योग की परिभाषा

अष्टांग का अर्थ है "आठ अंग" यह योग के आठ अंग या शाखाएँ है। जो की पतंजलि के योग सूत्र में वर्णित है, जिनमें से आसन या शारीरिक योग मुद्रा एक शाखा है और प्राणायाम अलग शाखा है। हर अंगों में से प्रत्येक का अभ्यास करके शरीर और दिमाग में सभी अशुद्धियों को नष्ट किया जा सकता है। पतंजलि के अनुसार, आंतरिक शुद्धिकरण में निम्नलिखित आठ आध्यात्मिक प्रथाएं शामिल हैं:
  1. यम [नैतिकता ]
  2. नियम [आत्म-शुद्धिकरण और अध्ययन]
  3. आसन [मुद्रा]
  4. प्राणायाम [सांस नियंत्रण]
  5. प्रतिहार [भावना नियंत्रण]
  6. धारण [एकाग्रता]
  7. ध्यान 
  8. समाधि [सार्वभौमिक में अवशोषण] 
पहले चार बाहरी रूप से सम्बन्धित हैं और हम कैसे दुनिया से जुड़ा है, इसमें विभिन्न तरीकों (यम और नियम), शरीर के नियंत्रण को आसन के माध्यम से और प्राणायाम के माध्यम से सांस के नियंत्रण  में करना शामिल हैं।

पिछले चार अंग अभ्यास के कई वर्षों के बाद स्वचालित रूप से पालन करने होता हैं: प्रतिहार, धारणा, ध्यान और समाधि (मुक्ति) ।

यम

यम का अर्थ है चित्त को धर्म में स्थित रखने के साधन । ये पांच हैं:

1. अहिंसा: मन, वचन व कर्मद्वारा किसी भी प्राणी को किसी तरह का कष्ट न पहुंचने की भावना अहिंसा है। दूसरे शब्दों में, प्राणिमात्र से प्रेम अहिंसा है।

2. सत्यः जैसा मन ने समझा, आंखों ने देखा तथा कानों ने सुना, वैसा ही कह देना सत्य है। लेकिन सत्य केवल बाहरी नहीं, आंतरिक भी होना चाहिए।

3. अस्तेयः मन, वचन, कर्म से चोरी न करना, दूसरे के धन का लालच न करना और दूसरे के सत्व का ग्रहण न करना अस्तेय है। 

4. ब्रह्मचर्य: अन्य समस्त इंद्रियों सहित गुप्तेंद्रियों का संयम करना-खासकर मन, वाणी और शरीर से यौनिक सुख प्राप्त न करना-ब्रह्मचर्य है।

5. अपरिग्रहः अनायास प्राप्त हुए सुख के साधनों का त्याग अपरिग्रह है। अस्तेय में चोरी का त्याग, किंतु दान को ग्रहण किया जाता है। परंतु अपरिग्रह में दान को भी अस्वीकार किया जाता है। स्वार्थ के लिए धन, संपत्ति तथा भोग सामग्रियों का संचय परिग्रह है और ऐसा न करना अपरिग्रह।

उपरोक्त पांचों साधन व्यक्ति की नैतिकता और उसके विकास, उसकी स्थिरता (टिकाव) से तो जुड़े हुए हैं ही, समाज के संदर्भ में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं, विशेषकर तब, जब विकास और उन्नति भौतिकता की धुरी पर धूम रही हो, अर्थात् आज के समय में।

नियम

नियम भी पांच प्रकार के हैं, जो निज से संबंधित हैं। ये हैं:

1. शौचः शरीर एवं मन की पवित्रता शौच है। शरीर को स्नान, सात्विक भोजन, षक्रिया आदि से शुद्ध रखा जा सकता है। मन की अंत:शुद्धि, राग, द्वेष आदि को त्यागकर मन की वृत्तियों को निर्मल करने से होती है।

2. संतोष: अपने कर्तव्य का पालन करते हुए जो प्राप्त हो उसी से संतुष्ट रहना या परमात्मा की कृपा से जो मिल जाए उसे ही प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करना संतोष है।

3. तपः सुख-दुख, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वंद्वों को सहन करते हुए मन और शरीर को साधना तप है।

4. स्वाध्यायः विचार शुद्धि और ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्याभ्यास, धर्मशास्त्रों का अध्ययन, सत्संग और विचारों का आदान-प्रदान स्वाध्याय है।

5. ईश्वर प्रणिधान: मन, वाणी, कर्म से ईश्वर की भक्ति और उसके नाम, रूप, गुण, लीला आदि का श्रवण, कीर्तन, मनन और समस्त कर्मों का ईश्वरार्पण 'ईश्वर प्रणिधान' है।


आसन

उच्च प्रकार की शक्ति प्राप्त होने तक नित्यप्रति शारीरिक और मानसिक आसन करने पड़ते हैं । योगियों ने इस प्रकार के आसन, प्राणायाम आदि का वर्णन किया है, जिनके करने से शरीर एवं मन पर संयम होता है।

आसन की सिद्धि से नाड़ियों की शुद्धि, आरोग्य की वृद्धि एवं शरीर व मन को स्फूर्ति प्राप्त होती है। उद्देश्यों के भेद के कारण ये आसन दो श्रेणियों में आते हैं; एक जिनका उद्देश्य प्राणायाम या ध्यान का अभ्यास है और दूसरे वे जो कि शरीर को निरोग बनाये रखने के लिए किये जाते हैं। क्योंकि शरीर और मन का संबंध स्थूल और सूक्ष्म का है इसलिए इन दोनों ही श्रेणियों को एक-दूसरे से अलग-अलग करके नहीं देखा जा सकता। दूसरे शब्दों में, प्राणायाम और ध्यान का अधिकारी तो वही है, जिसने शरीर का पूरी तरह से शोधन कर लिया हो, और यह शोधन बिना आसनों के संभव नहीं है। स्थिर और सहज बैठने के लिए जो शक्ति और धैर्य चाहिए वह भी आसनों से ही मिलता है।

प्राणायाम

बहुत से लोग प्राण का अर्थ श्वास या वायु लगाते हैं और प्राणायाम का अर्थ श्वास का व्यायाम बताते हैं, किन्तु यह धारणा गलत और भ्रामक है क्योंकि प्राण वह शक्ति है, जो वायु में क्या विश्व के समस्त सजीव और निर्जीव पदार्थों में व्याप्त है।प्राणायाम का उद्देश्य शरीर में व्याप्त प्राण शक्ति को उत्प्रेरित, संचारित, नियंत्रित और संतुलित करना है। इससे हमारा शरीर तथा मन नियंत्रण में आ जाता है। हमारे निर्णय करने की शक्ति बढ़ जाती है और हम सही निर्णय करने की स्थिति में आ जाते हैं।

शरीर की शुद्धि के लिए जैसे स्नान की आवश्यकता है, वैसे ही मन की शुद्धि के लिए प्राणायाम की। प्राणायाम से हम स्वस्थ और निरोग होते हैं, दीर्घायु प्राप्त करते हैं, हमारी स्मरण शक्ति बढ़ती है और मस्तिष्क के रोग दूर होते हैं।

प्रत्याहार

जब इंद्रियाँ अपने विषयों से मुड़कर अंतर्मुखी होती हैं, उस अवस्था को प्रत्याहार कहते हैं । सामान्यत: इंद्रियों की स्वेच्छाचारिता प्रबल होती है। प्रत्याहार की सिद्धि से साधक को इंद्रियों पर अधिकार, मन की निर्मलता, तप की वृद्धि, दीनता का क्षय, शारीरिक आरोग्य एवं समाधि में प्रवेश करने की क्षमता प्राप्त होती है।

यम, नियम, आसन, प्राणायाम के अभ्यास से साधक का शरीर शुद्ध और स्वस्थ हो जाता है, मन और इंद्रियां शांत हो जाती हैं, उनमें एकाग्रता आ जाती है। प्रभु की असीम शक्ति का आभास होता है और साधक अपने को प्रभु में लीन रखने लगता है। इस प्रकार इस अभ्यास से प्रत्याहार के लिए सुदृढ भूमिका तैयार हो जाती है।

धारणा

स्थूल वा सूक्ष्म किसी भी विषय में अर्थात् हृदय, भृकुटि, जिह्वा, नासिका आदि आध्यात्मिक प्रदेश तथा इष्ट देवता की मूर्ति आदि बाह्य विषयों में चित्त को लगा देने को धारणा कहते हैं । यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि के उचित अभ्यास के पश्चात् यह कार्य सरलता से होता है। प्राणायाम से प्राण वायु और प्रत्याहार से इंद्रियों के वश में होने से चित्त में विक्षेप नहीं रहता, फलस्वरूप शांत चित्त किसी एक लक्ष्य पर सफलतापूर्वक लगाया जा सकता है। विक्षिप्त चित्त वाले साधक का उपरोक्त धारणा में स्थित होना बहुत कठिन है। जिन्हें धारणा के अभ्यास का बल बढ़ाना है, उन्हें आहार-विहार बहुत ही नियमित करना चाहिए तथा नित्य नियमपूर्वक श्रद्धा सहित साधना व अभ्यास करना चाहिए।

ध्यान

ध्यान का तात्पर्य है, वर्तमान में जीना। वर्तमान में जीकर ही मन की चंचलता को समाप्त किया जा सकता है, एकाग्रता लायी जा सकती है। इसी से मानसिक शक्ति के सारे भंडार खुलते हैं। उसी के लिए ही ध्यान की अनेक विधियां हैं।

समाधि

विक्षेप हटाकर चित्त का एकाग्र होना ही समाधि है। ध्यान में जब चित्त ध्यानाकार को छोड़कर केवल ध्येय वस्तु के आकार को ग्रहण करता है, तब उसे समाधि कहते हैं अर्थात इस स्थिति में ध्यान करने वाला ध्याता भी नहीं रहता, वह अपने-आपको भल जाता है. रह जाता है मात्र ध्येय, यही ध्यान की परमस्थिति है। यही समाधि है। समाधि ध्यान की चरम परिणति है । जब ध्यान की पक्वावस्था होती है, तब चित्त से ध्येय का द्वैत और तत्संबंधी वृत्ति का भान चला जाता है।

धारणा, ध्यान और समाधि इन तीनों के समुदाय को योगशास्त्र में संयम कहा गया है। अनभवी साधकों का कहना है कि परिपक्वावस्था में केवल ध्येय में ही शट मालिक प्रवाहरूप से बद्धि स्थिर होती है, उसमें प्रज्ञालोक और ज्ञान ज्योति का उदय होना
अष्टांग योग - ashtanga yoga
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अष्टांग योग का महत्व

अष्टांग योग सप्ताह में छः दिन का अभ्यास किया जाता है, आमतौर पर रविवार से शुक्रवार, शनिवार के दिन आराम ले सकते है।  ईमानदार प्रयास और दैनिक अभ्यास के साथ, अष्टांग योग शरीर और दिमाग को शांति और स्थिरता की स्थिति में लाता है जो अंततः आध्यात्मिक जागरूकता और मुक्ति है।

अष्टांग योग के लाभ

अष्टांग योग का अभ्यास आपको फिर से जीवंत होते है और आपके शरीर, दिमाग और आत्मा को संतुलिन  मिलता है ।

  • शारीरिक शक्ति

अष्टांग योग शारीरिक शक्ति और मांसपेशियों के प्रशिक्षण पर केंद्रित है। अष्टांग न केवल आपके दिमाग को शांत और आत्मा को शांतिपूर्ण बनाता है, यह शरीर की शक्ति पर भी काम करता है। योग की इस शैली का अभ्यास करने से आप का शरीर मजबूत और नियंत्रित होता है। यह वजन कम करने में मदद भी करता है, शरीर को लचीला और सहनशक्ति को बढ़ता है।

  • मानसिक उपचार

हम सभी जानते हैं कि योग केवल शारीरिक फिटनेस के बारे में नहीं है, यह आपके दिमाग और आत्मा पर भी काम करता है। अष्टांग का अभ्यास आपको तनाव, तनाव इत्यादि जैसे विभिन्न मानसिक बीमार से बच सकते है । यह आपके विचार को बढ़ता है और ज्ञान समझने मे आपकी  मदद करता है । अष्टांग उन लोगों के लिए बहुत बढ़िया है जो किसी मस्तिष्क बीमार से पीड़ित हैं। उदाहरण के लिए, तनाव या सिरदर्द से पीड़ित।

  • आध्यात्मिक कल्याण

अष्टांग आध्यात्मिक उपचार पर भी काम करता है। अष्टांग आत्मा की खुलेपन को बढ़ावा देता है, यह आपके आत्मा से जुड़ने का एक शानदार तरीका है। यह आपको स्वयं को समझ ने भी सहायता करेगा । अष्टांग का अभ्यास करने से आप आसपास सकारात्मकता और खुश महसूस करेंगे ।

  • भावनात्मक लाभ

भावनात्मक लाभ में भावनाओं को नियंत्रित और संतुलित करना शामिल है। ऐसा कहा जाता है कि अधिकांश पीड़ा भावनाओं के कारण होती है। उदाहरण के लिए, उदास भावनाएं मानसिक बीमारी का कारण बन सकती हैं यह आपके शरीर को बहुत प्रभावित करते है ।
 

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